क्या ये प्यार है
हड़कंप सी है बदन में है नस नस ढीली ढीली
कल नींद नहीं आयी है ऑंखें हो रहीं गीली गीली
लगता है मुझको भी हो गया प्यार है
भाई डॉक्टर के पास जाओ ये वायरल बुखार है
तू क्या समझेगा छोटे तूने इश्क़ नहीं किया है
कल ही पार्क में दिल महबूब से मिला है
लगा था मुझको लेकिन कि कोई काट रिया है
खून टेस्ट करवालो भाई शर्तिया मलेरया है
ऐसा है छोटे फिर तेरी भाभी क्यों हॅंस रइ थी
छींका जब मैंने तो वो पीछे क्यों हट रइ थी
उसके शरमाने में लगता है प्यार शुमार है
खुश मत हो मेरे भाई आपका पेट खराब है
बारिश का है मौसम बीमारी फैली हज़ार हैं
भाई डॉक्टर के पास जाओ ये वायरल बुखार है
हो न हो छोटे मुझे भी हो गया प्यार है
भाई डॉक्टर के पास जाओ फैला वायरल बुखार है
इंतज़ार
एक और दिन उसने
कुछ यूँ गुज़ार दिया
सूरज पूरब से पकड़ा
पश्चिम में उतार दिया
इन्तहा हो गयी थी
उसके इंतज़ार की
महबूब भी छोड़ गया
मौत ने नकार दिया
बैठे बैठे खुद से ही
उसकी बातें होती थीं
आँखों आँखों में उसकी
रात गुज़र होती थी
हर कोई बचता उससे
जैसे हो उधार लिया
एक और दिन उसने
कुछ यूँ गुज़ार दिया
सूरज पूरब से पकड़ा
पश्चिम में उतार दिया
मशरूफों की बस्ती में
हर शख्स तन्हा है
चलती का नाम है दुनिया
किसी ने ठीक कहा है
रुक कर जो बैठ गया
उसे जीते जी मार दिया
एक और दिन उसने
कुछ यूँ गुज़ार दिया
सूरज पूरब से पकड़ा
पश्चिम में उतार दिया
हाफिज खुदा है
ये हमको पता है
जहाँ ने सबको ठगा है
तेरे ऐतबार पे एक बार
फिर ऐतबार जगा है
पता है कि ज़ख्म
फिर से लगेंगे गहरे
हमें पता है सनम
अपनी राहें जुदा हैं
सौंप दिया है हमने भी
लहरों को सफीना
अब तारे या डूबा दे
इसका हाफिज खुदा है
चंद गुलाब
तेरी मोहब्बत के चंद गुलाब
जो रख छोड़े थे हमने किताबों में
नाकाम रहीं कोशिशें सभी अपनी
कि न आओ कभीं तुम ख्वाबों में
तेरी एक तरफ़ा उल्फत के
मैं आज दाम लगा आया हूँ
कबाड़ी पति को तेरे वो किताब
कौड़ियों में बेचकर आया हूँ
मुंगफली
अमीर से अमीर आदमी
व्यापारी या सेठ आदमी
इंजीनिअर मज़दूर आदमी
सूट बूट वाला आदमी
धोती कुरता वाला आदमी
गाडी बंगले वाला आदमी
या हो फिर फ़क़ीर आदमी
तिलमिला कर ही रह जाये
मुंगफली छीले वो और
दाना ज़मीन पर गिर जाये
अम्मा
काया से कमज़ोर आंखों से कम ही देख पाती थी
जां में आती थी जान जब अम्मा सामने आती थी
किताबें की कम मगर ज़िन्दगी की पूरी समझ थी
रिश्ते नातों में तो अम्मा ने पीएचडी कर रखी थी
मामा चाचा बुआ भतीजे रिश्ते सभी निभाती थी
जां में आती थी जान जब अम्मा सामने आती थी
टीवी नहीं था हमें मगर रोज परियों से मिलवाती थी
बचपन में अम्मा लोरी और कहानियां सुनाती थी
पापा के गुस्से से अक्सर अम्मा ही बचाती थी
जां में आती थी जान जब अम्मा सामने आती थी
भोर अँधेरे हम सोते मगर अम्मा जग जाती थी
अंगीठी सुलगा कर घर के सब काम बनाती थी
खाने में इतना स्वाद न जाने कहाँ से ले आती थी
जां में आती थी जान जब अम्मा सामने आती थी
हम बच्चे बड़े हो गए ममता मगर कायम रहती
दिन ढले सब आ जाएँ अम्मा इंतज़ार करती रहती
थकान गायब हो जाती जब सर पे हाथ फेर जाती थी
जां में आती थी जान जब अम्मा सामने आती थी
छोटी खुशियां भी त्यौहार लगतीं जब अम्मा साथ थी
घर में सब अपने हैं अम्मा की मगर अलग बात थी
छोटी सफलताओं को भी अम्मा ऑस्कर दे जाती थी
जां में आती थी जान जब अम्मा सामने आती थी
अम्मा की नगरी में हर संतान रानी और राजा है
अम्मा की फूंक से हर दर्द काफूर हो जाता है
दिल की परतों में अम्मा आज भी ढांढस बंधाती है
आती है जां में जान याद जब अम्मा की आती है
कवि की प्रेयसी
कवि की कविता और कल्पना
दोनों कवि की प्रेयसी हैं
जैसे कवि मासूम है
सखियाँ भी उसके जैसी हैं
कल्पना कवि की आँखें मूंद कर
रंगी सपने दिखलाती है
कविता फिर थपकी देकर
सच का बोध करा देती है
एक हुई नाराज तो
दूजी मुंह फुलाये बैठी है
जैसे कवि मासूम है
सखियाँ भी उसके जैसी हैं
कल्पना सुन्दर है कवि के
मन को आकर्शित करती है
सौन्दर्य नहीं किसी का कविता
यह एहसास करा देती है
एक प्रेमिका सी सूंदर
दूजी पत्नी के जैसी है
जैसे कवि मासूम है
सखियाँ भी उसके जैसी हैं
कवि की कविता और कल्पना
दोनों कवि की प्रेयसी हैं
जैसे कवि मासूम है
सखियाँ भी उसके जैसी हैं
बचपन
याद नहीं जाती दिल से बचपन के नादान दिनों की
खुले आंगन में सो जाते हम हरे नीम के नीचे ही
हुकु पंछी का कलरव और आंखें हो जाती बोझिल
पास अम्माजी पीटा करती गीले कपडे हिल हिल
पानी की छिटकतीं बूंदें टकरा जातीं जब चेहरे से
आँखें खुल जातीं ठंडक से रूह खिल जाती बूंदों से
खेलते रहते थे दिन भर सुध न रहती घर लौटने की
याद नहीं जाती दिल से बचपन के नादान दिनों की
वक्त का यारों क्या कहना यह तो एक परिंदा है
चार दशक हो गए हैं लेकिन आज भी यादें जिंदा हैं
सब वैसा है जाने कहाँ खो गयी रूह की वो सिरहन
ना वो नीम है ना अम्माजी न हुकू पंची का कलरव
कोई जुगत बतला दो बचपन में फिर से लौटने की
याद नहीं जाती दिल से बचपन के नादान दिनों की
बोलियां
सावन का महीना फुहारें पढ़ती हलके हलके
हम गुज़रें जब गली में मिलते हैं दीवाने लड़के
लड़के आशिक़ हैं आवारा नहीं बस मनचले हैं
एक इशारा करो तो दिखा देंगे हम जान देके
जां का क्या करना है देना है तो दिल दे दो
मान जाएंगे आम जो ला दो पेड़ पर चढ़के
हमारी चाहत आज़मा लो देखो हम आ गए
चाहा हमने जिनको डिप्टी कलेक्टर हो गए
ऐसे तेवर थे आपके एक बार पूछ लेते बाप से
डिप्टी कलेक्टर वो होते चर्चे भी होते आप के