एक गाँव था गाँव में स्त्री थी जिसका नाम कजरी
दूध बेच कर गांव में वो गुजर बसर किया करती
झुठ का ज़्यादा चलन नहीं दुनिया थी सच्ची सीधी
कजरी थी चालाक मगर दूध में पानी भरा करती
मेरठ शहर में कभी नौचंदी का मेला लगता था
सभी गाँवों का सामान उस मेले में बिका करता
कजरी भी मेले में अपनी किस्मत चमकाने चल दी
खुरापाती अपनी बुद्धि से रुपये कमाने चल दी
हांडी में पहले गोबर फिर ऊपर से घी से भर दिया
कपड़ा बांधकर हांडी के मुंह पर ढक्कन रख दिया
मेले जाकर ‘घी लेलो ताज़ा घी लो’ की आवाज़ लगाई
भीड़ बहुत थी मेले में पर न हुई कोई भी सुनवाई
कजरी हुई मायूस कि आज खाली हाथ जाना होगा
घी भी खाने लायक नहीं नुकसान उठाना होगा
समान समेट रही थी तभी वहां एक आदमी आया
कजरी चिल्लाई तुरंत ‘अरे अरे घी शुद्ध ले लो फूफा’
फूफा सुन गदगद हुआ फूलकर हो गया कुप्पा
अरे भतीजी कैसी है ले पैसे ले घी दे दे मुझे पूरा
एक बार घी चख लो फूफा पैसे बाद में लुंगी’
गारंटी का घी है चख लो फिर कुछ न सुनूंगी
कजरी ने ऊपर से घी उस चम्पू को खिला दिया
खुश होकर बोला वो ‘वाह भतीजी बहुत बढ़िया’
पैसे लेकर कजरी ने हांडी फूफा को थमा दी
लगे जो कोई खोट कह देना कल यहीं मिलुंगी
ख़ुशी ख़ुशी कजरी और फूफा दोनों चले गए
क्या होगा कल किसे पता वो ही जाने देखिये
उस दिन से मेले में बस यही आवाज़ गूंजती
‘नौचंदी के मेले में आखिर मैं किसका फूफाजी’