मैं अकेला ही चल दिया मंज़िले जानिब रेल में
औकात अपनी इस दफा घर पर छोड़ कर गया
छूट गया था कभी जो हिन्दोस्तां सवारी डिब्बे में
उस सरजमीं से मैं रूबरू होकर गुज़रा
तरक्की लफ्ज़ जैसे हो मेरी नज़रों का पर्दा
हक़ीक़त अब भी गलीच है कुछ नहीं बदला
खचाखच डिब्बे में कदम रखने की जद्दोज़हद
कहीं धमकी कहीं मारपीट हर तरफ शोर तोबा
सीट घेरने वाले अक्सर ही जल्द उतर जाते हैं
मुझे सीट मिल गयी तो मैं आम से ख़ास हो गया
इस सफर ने ये बात बखूबी समझा दी है
पानी जितना भी मैला हो ठंडक नहीं छोड़ता