बहोत दिना है गए सखा के धाम सुदामा सोच रह्यो
मिलौ ऐसो सत्कार कि सुध घर की मैं बिसराय गयो
मन की व्यथा रही मन ही में कान्हा ते कह ना सक्यो
का मोन्ह ले अब जाऊं सुदामा व्याकुल चिंता में परयो
रही बामनी देत उल्हाने घर में न शेष अनाज के दाने
भिक्षा मांग पूरो नाय पायो रीते हाथ पठायो सखा ने
कासे कहूं उदगार मन ही मन कर मन संताप रह्यो
बहुत दिना है गए सखा के धाम सुदामा सोच रह्यो
गांम में जर्जर परी झौंपड़ी कटुंब भोजन कुं तरसे
पाँव में है जाएँ घाव पन्हा बिन बालक निकलें घर तें
कोई सुख दीन्हो नाय कहाँ मर जांय स्वयं ही कोस रह्यो
बहोत दिना है गए सखा के धाम सुदामा सोच रह्यो