बोझ इस कदर था उसके कन्धों पर
उलझनों से उसे सदा घिरा देखा
इंसान था वह भी हंसना जानता था
मगर जब देखा उसे संजीदा देखा
हैसियत थी मगर मन कहाँ से लाता
खुद पर खर्चने का न ज़ज़्बा देखा
टूट जाने की हद तक पिसता था
आराम करते उसे कम ही देखा
दिल खोल देता वो दोस्त की तरह
मैंने मगर उसमें सिर्फ पिता देखा